बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

वृद्धाश्रम [लघुकथा]

मेरे पडोसी के पिता जी राम घई हस्पताल में थे | 
अभी कल ही मेरे पास बैठे थे बेचारे परेशान थे |
पूछ रहे थे मुझे यहाँ आए हुए कितने दिन हो गए ?....
मैंने कहा मालूम नहीं उन्होंने फिर जिद्द करके पूछा फिर भी अंदाजा मुझे आए हुए कितना समय हो गया है? 
मैंने कहा लगभग एक महीना हुआ होगा ......
तो बोले फिर वो [छोटा बेटा] मुझे लेने क्यों आ रहा है? अभी दो महीने तो नहीं हुए हैं यह [ बड़ा बेटा ] क्यों भेज रहा है मुझे ? 
इसी उधेड़बुन में शायद वो सुबह तक उठ ही नहीं पाए ,
उनके एक हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था और उनको हस्पताल ले जाना पड़ा |
उससे भी बड़ी विडम्भना माँ जिन्दा है और जब अंकल यहाँ होते हैं तो वो दूसरे बेटे के वहां ..... सामान की तरह उनका आदान प्रदान होता है ... 
            यह  सुनकर एक बार फिर आँखें नम थी क्योंकि बार बार मेरे अपने देश के वृद्धों के साथ मेरे देश के युवा कर्णदारों द्वारा यह व्यवहार असहनीय है | शायद इसीलिए वृद्धाश्रमों की कल्पना अब साकार होने लगी है | 
इसलिए याद आ गया कुछ दिन पहले लिखा दोहा .. 

         सीखा उँगली को पकड़ ,चलना जिनके साथ |
          वृद्धावस्था में अभी ,थामों उनका हाथ ||
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